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एक छात्र, एक स्कूल, और एक बंदूकधारी गुरुजी,उत्तराखंड के जंगलों में तैनात शिक्षा का सिपाही….

देहरादून: सुबह की हल्की धूप पहाड़ियों पर उतरती है, जंगल जागने लगते हैं, पंछी बोलने लगते हैं, लेकिन जौलीग्रांट के सतेली गांव में एक और चीज़ रोज़ जगती है वह है उम्मीद। और इस उम्मीद का नाम है अरुण रावत…..हर सुबह अरुण रावत अपनी पीठ पर बैग और कंधे पर बंदूक टांगकर निकलते हैं।रास्ता कोई आसान नहीं,घना जंगल, पगडंडी जैसा रास्ता और हर मोड़ पर जानवरों की आहट। लेकिन मंज़िल वही ….गांव का वह छोटा-सा स्कूल, जिसमें सिर्फ एक छात्र पढ़ता है।स्कूल का गेट खुलता है, घंटी नहीं बजती, लेकिन एक आठवीं कक्षा का लड़का बेंच पर बैठता है, और उसका “स्कूल” शुरू हो जाता है।

यह कोई कहानी नहीं, हकीकत है। उत्तराखंड के देहरादून जिले के जौलीग्रांट इलाके के सतेली गांव का पूर्व माध्यमिक विद्यालय, जहां शिक्षा किसी व्यवस्था के सहारे नहीं, बल्कि एक शिक्षक के जुनून से जिंदा है।अरुण रावत को रास्ते में हाथियों, भालुओं और तेंदुओं का सामना करना पड़ता है।कई बार जंगली जनवरो से जान बचाने की नौबत आई,लेकिन उन्होंने स्कूल जाना नहीं छोड़ा,अरुण रावत कहते हैं,”एक छात्र भी है,तो भी स्कूल बंद नहीं हो सकता।जंगल की दहशत से ज़्यादा डर मुझे उस बच्चे की पढ़ाई छूट जाने का है।”
विद्यालय में दो शिक्षक तैनात हैं,लेकिन एक नियमित रूप से मेडिकल जांच के लिए जाते हैं।ऐसे में पूरी जिम्मेदारी अरुण रावत पर ही आ जाती है।एक भोजन माता भी हैं, जो रोज़ एक थाली खाना बनाती हैं सिर्फ एक छात्र के लिए।

इस बार सत्र शुरू होने पर बाकी स्कूलों में जहां ‘प्रवेश उत्सव’ मनाया गया,वहीं यहां खामोशी रही।न रंग, न गुब्बारे, न नारे। सिर्फ एक बेंच, एक किताब और एक गुरु।खंड शिक्षा अधिकारी हेमलता गौड़ कहती हैं, “छात्र नहीं बढ़े तो स्कूल को समीपवर्ती विद्यालय में मर्ज करना पड़ेगा।

”लेकिन अब सवाल यह हैं कि क्या हर समस्या का समाधान सिर्फ विलय है?अरुण रावत जैसे शिक्षक हमें सिखाते हैं कि शिक्षा कभी संख्या नहीं देखती, वह सिर्फ समर्पण देखती है। और शायद यही कारण है कि एक दिन जब इतिहास लिखा जाएगा, तो उसमें सतेली गांव का एक स्कूल और उसका अकेला छात्र भी ज़रूर दर्ज होगा।

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