
देहरादून: उत्तराखंड में सोमवार को दूसरे चरण का पंचायत चुनाव शांतिपूर्ण तरीके से संपन्न हो गया।जिसमें प्रदेश के 10 ज़िलो में 70 प्रतिशत मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया।अब प्रत्याशियों का भाग्य मतपेटियों में बंद हो चुका है, जिसका फैसला 31 जुलाई को मतगणना के दिन सामने आएगा। लेकिन इस बार के पंचायत चुनाव में एक चौंकाने वाला ट्रेंड देखने को मिला।शहरी मतदाताओं की गांव में सक्रिय भागीदारी ने कई ग्रामीण प्रत्याशियों के गणित को उलझा कर रख दिया है।
दरअसल, इस बार बड़ी संख्या में ऐसे मतदाता देखे गए जिन्होंने छह महीने पहले अपने शहरी निकाय क्षेत्र में वोट डाला था और अब गांव लौटकर पंचायत चुनाव में भी मतदान किया। ये “डबल वोटर” यानी दोहरी मतदाता सूची में शामिल लोग थे। जिनके नाम शहरी और ग्रामीण दोनों मतदाता सूचियों में मौजूद थे। इस वजह से कई पंचायत सीटों पर मामूली वोटों के अंतर से हार-जीत तय होने की संभावना जताई जा रही है, और इसका पूरा श्रेय शहरी वोटरों को दिया जा रहा है।
चुनाव के दौरान यह भी देखने को मिला कि कई प्रत्याशी, खासतौर से जो गांव से बाहर रहने वाले वोटरों को अपने पक्ष में मानते थे, उन्हें लाने-लेजाने के लिए गाड़ियों की व्यवस्था करते रहे। प्रत्याशियों ने एक-एक वोट के लिए ढाई से तीन हजार रुपये तक का खर्च सिर्फ गाड़ी भाड़े में कर डाला।उनके मुताबिक, शहरी मतदाता उनके लिए “पक्के वोटर” माने जाते हैं,ऐसे में पंचायती उम्मीदवारों के द्वारा उन्हें लुभाने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई।
इस प्रक्रिया ने न सिर्फ ग्रामीण राजनीति की पारंपरिक समझ को चुनौती दी है, बल्कि मतदाता सूची की पारदर्शिता और चुनावी प्रक्रिया की शुद्धता पर भी सवाल खड़े कर दिए हैं। आखिर कैसे एक ही व्यक्ति का नाम दो-दो जगहों की मतदाता सूची में बना रह सकता है?
अब यह ज़िम्मेदारी राज्य निर्वाचन आयोग की बनती है कि वह इस तरह की दोहरी प्रविष्टियों पर गंभीरता से विचार करे। आने वाले चुनावों में ऐसी स्थिति न हो, इसके लिए मतदाता सूची को अद्यतन और पारदर्शी बनाने की सख्त ज़रूरत है। वरना गांव की सरकार में शहर का वोट भविष्य में भी निर्णायक भूमिका निभाता रहेगा।